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हसदेव अरण्य : पर्यावरण बनाम कोयला खनन

by Ravikant Dewangan
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हसदेव अरण्य : पर्यावरण बनाम कोयला खनन
बीते वर्ष २०२३ के नवंबर माह में यूएई में कॉप-२८ का आयोजन किया गया। जिसमे दुनिया के २०० से अधिक देशों ने जलवायु सम्मलेन में हिस्सा लेकर जीवाश्म ईंधन से दूरी बनाने की जरुरत पर जोर दिया तथा वर्ष २०३० तक कार्बन उत्सर्जन को ४३% घटाने और नवीकरणीय ऊर्जा को ३ गुना बढ़ाने पर सहमति बनाई गई।

एक ओर जहाँ भारत ने भी सम्मलेन में हिस्सा लिया तथा जलवायु परिवर्तन को लेकर अपनी प्रतिबद्धता जाहिर की। वहीँ दूसरी ओर छत्तीसगढ़ में सरगुजा का फेफड़ा माने जाने वाले जैवविविधता से समृद्ध “हसदेव अरण्य ” में कोयला उत्खनन के लिए अनुमति दे दिया गया। अब वहां कोयला उत्खनन के लिए हज़ारों पेड़ों को काटा जा रहा है। जिसे लेकर पर्यावरण प्रेमियों में रोष व्याप्त है। हम एक ओर वैश्विक मंचों पर “पर्यावरण को बचाने का संकल्प” लेते हैं तो दूसरी ओर ऊर्जा जरुरतों को पूरा करने “पर्यावरण की बलि ” चढ़ा देते हैं। पर्यावरण के प्रति यह दोहरी नीति अवश्य ही मानव जाति के लिए संकट पैदा करेगी। हमें शीघ्र ही एक स्पष्ट पर्यावरणीय नीति को अपनाना होगा जो विकास बनाम पर्यावरण की दुविधा को दूर करेगा। वरना वह दिन दूर नहीं जब हमारे कृत्यों के कारण पर्यावरण इतना अधिक प्रदूषित हो जाये की पृथ्वी रहने लायक ही ना बचे।


क्या है हसदेव अरण्य मामला?

हसदेव अरण्य एक घना जंगल है, जो १७०००० हेक्टेयर क्षेत्र में फैला हुआ है। यह क्षेत्र छत्तीसगढ़ के आदिवासी समुदायों का निवास स्थान है। इस घने जंगल के नीचे अनुमानित रूप से पांच अरब टन कोयला दबा है। इसकी सीमा ३ राज्यों झारखण्ड ,छत्तीसगढ़ तथा ओडिसा से लगती है। हसदेव अरण्य को मध्य भारत का फेफड़ा भी कहा जाता है। यह क्षेत्र जैवविविधताओं से समृद्ध है। यहाँ से होकर हसदेव नदी प्रवाहित होती है। इसी के नाम पर हसदेव अरण्य का नाम रखा गया है।

हसदेव अरण्य क्षेत्र के नीचे कोयले का भंडार पाया गया है। जिसके चलते यहां परसा ईस्ट केते बासेन खदान बनाए जाने का निर्णय लिया गया है। १ लाख ७० हजार हेक्टेयर में से १३७ एकड़ जंगल के क्षेत्र के पेड़ों की कटाई प्राम्भ हो चुकी है. ऐसे में ग्रामीण इस जंगल को काटे जाने का विरोध कर रहे है। हसदेव अरण्य क्षेत्र में कोयला खनन के लिये वर्तमान में स्वीकृत परसा ईस्ट एवं केते बासेन कोयला खदान के लिये लगभग २२२९२१ वृक्ष एवं परसा कोयला खदान के लिये लगभग ९९१०७ वृक्षों की कटाई होनी है। राजस्थान की विद्युत कंपनी को कोल ब्लॉक का आवंटन किया गया है।

हसदेव अरण्य में संचालित परसा ईस्ट केते बासेन कोयला खदान के दूसरे चरण में उपलब्ध ३५० मिलियन टन कोयला राजस्थान की २० वर्षो की कोयला की जरूरतों को पूरा करने के लिए सक्षम है। कोल ब्लॉक की एनओसी लंबे समय तक अटकी थी। राजस्थान के तत्कालीन मुख्यमंत्री अशोक गहलोत के छत्तीसगढ़ आगमन के बाद छत्तीसगढ़ वन विभाग द्वारा एनओसी जारी की गई थी।

हसदेव अरण्य का मामला हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट तक भी पहुँच चुका है। वहीं हसदेव के जंगलों को बचाने के लिये ‘हसदेव बचाओ अभियान’भी चलाया जा रहा है। छत्तीसगढ़ के सरगुजा संभाग में हसदेव जंगल में पेड़ों की कटाई का मुद्दा पूरे देश में छाया हुआ है। एक तरफ आदिवासी जंगल को बचाने दिन रात पहरा दे रहे हैं तो दूसरी तरफ शासन और प्रशासन किसी भी हाल में हसदेव में नया कोल ब्लॉक शुरू करने पर अड़ा हुआ है।

 

छत्तीसगढ़ में हसदेव अरण्य पर्यावरण बनाम कोयला खनन

 


हसदेव अरण्य की महत्ता तथा खनन परियोजना से संभावित नुकसान:


छत्तीसगढ़ में हसदेव अरण्य कोरबा , सरगुजा तथा सूरजपुर जिले में फैला हुआ है। यह एक विशाल एवं जैवविविधताओं से परिपूर्ण जंगल है। हसदेव नदी पर प्रदेश का सबसे ऊँचा बांध मिनीमाता परियोजना का निर्माण किया गया है। यह एक बहुउद्देशीय परियोजना है जिसमे जलविद्युत उत्पादन , सिंचाई ,पेयजल ,पर्यटन तथा मत्स्य पालन किया जाता है। हसदेव का जंगल मध्य प्रदेश के कान्हा किसली के जंगल तथा झारखण्ड के पलामू के जंगलों को जोड़ता है जो एक महत्वपूर्ण हाथी कॉरिडोर है। साथ ही अन्य वन्य जीवों का आवासीय क्षेत्र है। खनन का सीधा असर हाथियों के इलाके पर तो नहीं पड़ेगा लेकिन हाथियों के आने जाने वाले इलाके में खनन की वजह से इंसान और हाथियों के बीच संघर्ष बढ़ सकता है।

छत्तीसगढ़ सरकार द्वारा लेमरू हाथी अभयारण्य के तौर पर हसदेव के एक हिस्से को अधिसूचित करने का निर्णय भी इसी संघर्ष को रोकने की एक पहल थी जो कि लंबे समय से अटका हुआ है। खनन संबंधी कार्यों से काफी मात्रा में जंगल की जमीन का उपयोग गैर वन संबंधी काम में होगा जिससे जमीन के भीतर कई बदलाव होंगे और इसका असर पास बहने वाली नदियों पर भी हो सकता है,कोल ब्लॉक के कोर और बफर जोन से होकर बहने वाले अधिकतर नाले, बड़ी नदियों के प्राथमिक और माध्यमिक सहायक जलस्रोत हैं। इनका बहाव अगर रुका या कम हुआ तो आगे नदी में भी इसका असर दिखेगा। इलाके के ९० प्रतिशत परिवार आजीविका के लिए खेती और जंगल से मिलने वाले वनोपज पर निर्भर हैं।

यह जंगल स्थानीय लोगों के लिए पानी और दूसरी वातावरण संबंधी जरूरतों को तैयार करने में मददगार है। इससे खेती और दूसरे काम होते हैं। खनन की वजह से इन्हें विस्थापित करना होगा जिससे समुदाय की आजीविका, पहचान और संस्कृति खतरे में आ जाएगी। इन इलाकों में साल के वन हैं जो हाथियों का निवास स्थान है।यह वन सघन श्रेणी के वन हैं जिनकी संख्या देश में काफी कम है। कोयला मंत्रालय एवं पर्यावरण एवं जल मंत्रालय के संयुक्त शोध के आधार पर वर्ष २०१० में पूरी तरह से ‘नो गो एरिया’ घोषित किया थ। हालांकि, इस फैसले को कुछ महीनों में ही रद्द कर दिया गया था और खनन के पहले चरण को मंजूरी दे दी गई थी, जिसमें बाद वर्ष २०१३ में खनन शुरू हो गया था।

हसदेव अरण्य में कब शुरु हुआ खनन : राजस्थान राज्य विद्युत् उत्पादन निगम को २००७ में आवंटित पीईकेबी ब्लॉक में ७६२ हेक्टेयर भूमि पर खनन का पहला चरण २०१३ में शुरू हुआ और पूरा हो चुका है।अप्रैल २०१० में छत्तीसगढ़ सरकार ने परसा इस्ट और केते बासीन (पीईकेबी) में १८९८.३२८ हेक्टेयर जंगल की जमीन के उपयोग की सिफारिश की। अप्रैल २०१० को छत्तीसगढ़ की तत्कालीन सरकार ने परसा इस्ट एवमं केते बासीन (पीईकेबी) को राजस्थान राज्य विद्युत उत्पाद निगम लिमिटेड (आरआरवीयूएनएल) को सौंप दिया।जून २०११ में केंद्रीय पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन की फॉरेस्ट पैनल ने इस इलाके को पारिस्थितिकी तौर पर महत्वपूर्ण मानते हुए इसमें खनन की सिफारिश के खिलाफ अपना मत दिया। इस दौरान काटे जाने वाले पेड़ों की संख्या को देखते हुए पैनल ने संरक्षण के लिहाज से यह फैसला लिया। उस वक्त के मंत्री जयराम रमेश ने इस निर्णय को नजरअंदाज करते हुए राज्य सरकार के खनन की सिफारिश को माना और जो इलाके अपेक्षाकृत कम घने और कम जैवविविधता वाले हैं वहां खनन की अनुमति दे दी।

इस निर्णय को २०१४ में नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल (एनजीटी) में चुनौती दी गई और आदेश के बाद आरआरवीयूएनएल द्वारा किए जा रहे खनन को स्थगित किया गया। एनजीटी द्वारा वाइल्डलाइफ इंस्टीट्यूट ऑफ इंडिया और आईसीएफआरई जैसी संस्थाओं के विशेषज्ञों द्वारा यहां अध्ययन की बात कही गई थी। सुप्रीम कोर्ट ने आदेश के उस हिस्से पर रोक लगा दी जिसमें आरआरवीयूएनएल द्वारा किए जा रहे कामों को रोका गया था।स्थानीय लोगों का कहना है , ग्राम सभाओं ने क्षेत्र में कोयला खदान के लिए अपनी सहमति नहीं दी है तथा इसे पांचवीं अनुसूची का उल्लंघन बताया है। हसदेव अरण्य बचाओ संघर्ष समिति के बैनर तले स्थानीय ग्रामीण कई वर्षों से इन खदानों के आवंटन का विरोध कर रहे हैं ।वन विभाग ने अतीत में पीईकेबी चरण 2 कोयला खदान की शुरुआत का मार्ग प्रशस्त करने के लिए पेड़ काटने की कवायद शुरू करने की कोशिश की थी, लेकिन स्थानीय ग्रामीणों ने इसका कड़ा विरोध किया, जिससे अधिकारियों को अपनी कार्रवाई रोकने के लिए मजबूर होना पड़ा।

हसदेव अरण्य में राजनीति भी जमकर हो रही है:

हसदेव अरण्य में जब से कोयला खनन की बात शुरू हुई है तब से इस मामले पर राजनीति हो रही है। पिछले दशक से यह मामला राजनीतिक गलियारों में चर्चा का विषय बना हुआ है। स्थानीय आदिवासियों द्वारा प्राम्भ से ही इस खनन का विरोध किया जा रहा है। ग्रामीणों का कहना है की कोल ब्लॉक के लिए दी गई ग्राम सभा की अनुमति भी फर्जी है। राज्य के प्रमुख राजनीतिक दाल कांग्रेस तथा भाजपा एक दूसरे पर आरोप-प्रत्यारोप लगाकर जमकर राजनीतिक रोटी सेक रहीं हैं। सच तो यही है की केंद्र में कांग्रेस की सरकार के दौरान परियोजना को अनुमति मिली फिर राष्ट्रिय हरित अधिकरण के आदेश के बाद परियोजना पर रोक लगाई गई।

केंद्र में भाजपा सरकार के आने के बाद पुनः इस परियोजना को आगे बढ़ाया गया। राष्ट्रिय हरित अधिकरण द्वारा कराये गए अध्ययन के बाद पुनः इस क्षेत्र में खनन की अनुमति दी गई। जबकि अध्ययन में यह स्पष्ट किया गया था की खनन परियोजना से जैव विविधता को अपूरणीय क्षति हो सकती है साथ ही मानव-वन्य जीव संघर्ष के मामले बढ़ सकते हैं तथा क्षेत्र में रहने वाले आदिवासियों के आजीविका एवं संस्कृति पर संकट आ सकता है।इस संभावित नुकसान के आंकलन के बाद भी खनन की अनुमति दिया जाना अवश्य ही कई गंभीर एवं चिंताजनक प्रश्न खड़े करता है।

कांग्रेस सरकार ने छत्तीसगढ़ विधानसभा में कोल ब्लॉक रद्द करने का संकल्प पारित किया था :

छत्तीसगढ़ विधानसभा में २६ जुलाई २०२२ को अशासकीय संकल्प सर्वसम्मति से पारित किया गया था। तत्कालीन विधायक धर्मजीत सिंह ने अशासकीय संकल्प लाया था। परन्तु इस अशासकीय संकल्प का पालन नहीं किया गया। हसदेव अरण्य कोल फिल्ड के क्षेत्रान्तर्गत कुल २२ कोल ब्लॉक हैं।दूसरे चरण की अनुमति मिलने के बाद यह आशंका जाहिर की जा रही है की आगे इस क्षेत्र में और भी दूसरी परियोजनाओं को मंज़ूरी मिलेगी जिससे इस क्षेत्र की सम्पूर्ण जैवविविधता खतरे में पड़ सकती है।


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